Monday, May 12, 2008



वो कौन ..

कल रात एक सपना देखा
सपने में एक दर्पण था
दर्पण में इक छाया जिसमें
एक चेहरा मुरझाया सा ..
झूलती झुर्रियां चेहरे से अनथक
पके चांदी बाल सन से
आँखें थीं चमक से अन्जान
सूनी , सूखी , निराश , बेजान ..

देखना जो और चाहा ' उसे ' ,
तो चेहरा ' फ़िक' से हंस दिया ,
एक सूखी , गैरज़रूरी हँसी
जो आई और उल्टे पैर चली गई ..

इने गिने बचे दांतों का
फिर से हंस देने की कोशिश करता
ये गुज़रा बीता चेहरा
क्यूं कुछ पहचाना सा लगता है .. ?
क्यूं इन झुर्रियों के पीछे का दर्द
किसी फाँस सा चुभा जाता है .. ?
क्यूं इन सूनी आंखों की अनकही बातें
कभी जल चुकी आग की राख सी बुझी जाती हैं ..?

आख़िर पूछ ही बैठता हूँ उससे
उसकी वेदना , उसकी व्यथा , उसका जीवन क्रम ..
पर उत्तर में एक मौन है
कह जाता जो एक अमानवीय अकेलापन ,
जो रह गया बस संग , भोगने को , भुगतने को ..

सूनी बुझी आँखें , जो कभी चमकती थीं जुगनुओं सी
देखतीं हैं मुझे इक हसरत से
मानो कह रही हों
बस कुछ ही साल गुज़रे हैं
जिन्होंने बदल दिया मुझे झुर्रियों में , जर्जर में
पर कभी मैं भी था , तुम सा ..

जीवन से भरपूर , उमंगों में ..

आज तुम जब हँसते हो , खिलखिलाते हो , साथियों समेत
तो मन करता है तुम सबका हिस्सा बनने को ,
हिस्सा मात्र ठिठोलियों या मुस्कुराहटों का नहीं
बल्कि स्पूर्ति का , ऊर्जा का , संगियों के संग का ..
उम्मीदों का , संभावनाओं का , उस अनुपम रचनाक्रम का ,
जो रचता है , खिलता है , और बनता है
स्रोत अपूर्व आनंद का ..

कुछ उबासी से , कुछ ध्यान से , चेहरे को देखता हूँ
तो अचानक वह पूछ बैठता है
बोलो .. बोलो .. क्या मुझे भी बनने दोगे हिस्सा
अपने संग का .. अपने साथियों का .. ?
कुछ विस्मय से , कुछ अचरज से , और कुछ तल्खी से
मैं कह बैठता हूँ ' ना ' ..

और आश्चर्य .. घोर आश्चर्य ..

वो झुर्रियां अट्टहास कर उठती हैं
और पूछती हैं ..
बूझो तो .. हम कौन .. हम कौन ..
और फिर स्वयं कह उठती हैं
हम भविष्य हैं .. तुम्हारा ..
किसी और का नहीं ..

तुम्हारा .. !

जो तुम आज हो वो कल नहीं होगे ..
आज उत्थान चढ़ रहे हो
कल ढलान भी उतरोगे ..

उन्मत्त हो आज , पर भूल ना जाना
जो ढलान पर हैं
कुछ समय पहले उत्थान पर थे ..
यही खेल है .. यही क्रम है ..
सदा चढ़ान की कामना
मात्र एक भ्रम है .. भ्रम है ..

टूट जाती है नींद और मैं हूँ
स्तब्ध .. दग्ध .. मौन ..
बूझता
वो कौन .. वो कौन ..


Tuesday, April 1, 2008





भाग ..


फिर वही दौड़ .. फिर वही भाग ..
वही रोज़ के धक्के ..
वही झटकों पे झटके ..

लगे रहो .. सहते जाओ ..
सोचो मत .. दौड़ते जाओ ..

रुक गए तो ठुक गए ..
थक गए तो चुक गए ..
सुस्ताये तो हार जाओगे ..
बैठ गए तो किस्सा ख़त्म .. !

माथे पसीना .. बिखरे बाल ,
उलझी साँसें .. चूरा हाल ..

मात्र दौड़ना , काफ़ी नही ..
दौड़ो .. पर तेज़ 'बाकियों' से ..
नहीं .. तो कम से कम
'बाकियों' के वेग से ..

डर .. 'औरों' से पिछड़ जाने का ,
'बहुतों' की भीड़ में कहीं खो जाने का ..
'और' तो फिर भी इंसान हैं .. नश्वर ..
पर इस 'समय' का क्या करें
जो कभी रुकता नहीं ..
जो कभी टिकता नहीं ..
दौड़ता है साथ संग ,
हर घड़ी में .. हर कदम पे ..
बीत जाता पलक झपकते ,
जो आप रुके , ये निकल गया
सरपट .. सबसे आगे ..

जीवन की इस दौड़ में
थकना .. एक गुनाह !
थमना .. उससे बड़ा गुनाह !!
रुक जाना .. सबसे बड़ा गुनाह !!!

सोचो .. क्या भागते रहना ही जीवन है ?
क्या मंथर गति पर्याप्त नहीं ?

अरे यह भागमभाग कैसी ?
किसके पीछे ..? किसलिए .. ?
लूटने दुनिया के आकर्षण .. ?
या फिर आवश्यकताओं का
वही पुराना 'बिचारा' व्यथाक्रम .. ?

इसका कोई अंत नही ..
जीवन भूलकर भागते जाना
बीतना है .. जीना नहीं ..

खींचनी होगी कहीं तो
संतोष की एक सीमा रेखा
जो बदल सके 'तेज़' को 'मंथर' में
बिना गिरे .. बिना ठोकर दिए ..
बिना किसी अवसाद के ..
जो दे सके संतुलन
'संभावना' व 'प्रत्यक्ष' में ..
'लोभ' व 'वास्तविकता' में ..
और फिर होंगे
शांति .. सुख .. उल्लास ..
आह .. अपूर्व आल्हाद .. !!

गुनाह .. !

भागने के समय सोचना .. गुनाह .. !!
देखना दिवास्वप्न .. और बड़ा गुनाह .. !!!

तो फिर ..

भाग जमूरे भाग ..

भाग ..

Friday, March 28, 2008



बदरिया ..



बदरिया .. फिर घिर आए बदरिया ..
बदरिया .. घिर घिर आए बदरिया ..

गरजे मेघा रे गरजे दिसायें .. चम से चमके बिजुरिया ..
बदरिया .. हिया मा लागे कटरिया ..
बदरिया ..

आंधी आयो तुफ्फान भी आयो .. उड़ उड़ जाए चुनरिया ..
बदरिया .. मैली हो गई अटरिया ..
बदरिया ..

रिमझिम बूंदें , झमाझम धारें .. खिल गए बेलें पतरिया ..
बदरिया .. भीजी सारी डगरिया ..
बदरिया ..

सब सखि राम अवध मा राजें .. मोरे कौन नगरिया ..
बदरिया .. सूनी मोरी छपरिया ..
बदरिया ..

राह तकूं , का अगहन का साबन .. कोई न लौटन खबरिया ..
बदरिया .. ढूंढूं कौन बजरिया ..
बदरिया ..


बाहर पानी है अन्दर पानी , फिर क्यूं मैं जलबिन मछरिया ..
बदरिया .. घुल घुल जाए कजरिया ..
बदरिया ..

बादल बरसें धरतिया झूमे .. भई सब माटी सरसिया ..
बदरिया .. मोर ही खाली गगरिया ..

बदरिया .. सौतन लागी नजरिया ..
बदरिया .. लई दे मोरा सांवरिया ..

बदरिया ..


Thursday, March 20, 2008


उम्मीद ..


नि:शब्द रात में ..
एक बयाबान सा है ..
कुछ सूखे बिखरे पत्ते ..
कुछ आड़े तिरछे रेखाचित्र ..
और वो , कुम्हलाया सा
एक धूप का टुकड़ा ..

सूरज यूं ही चाँद में बदलता हुआ ..
फिर सहमे सहमे तारों का ,
डर डर कर टिमटिमाना ..
और एक आवारा सा बवंडर ..
उठ कर सब कुछ निगलता हुआ ..

खुली हुई आखों में ,
एक कतरा नींद ..
जो कमर कस कर बैठी है ,
उड़ जाने को ..
छोड़ जाने को पीछे ,
कुछ थके-हरे अनदेखे सपने ..
और कुछ गीत भी , जो कभी
बंद आंखों ने गुनगुनाए थे ..

सर्द सी होती ज़मीन पे ,
कुछ बनते बिगड़ते क़दमों के निशान ..
और एक बहुत लम्बी सुरंग ,
थके क़दमों को ..
और भी थकाती हुई ..
क्या सब कुछ अँधेरा ही है ..?
अविराम .. मात्र एक शून्य .. ??

उम्र से लम्बी अंधी सड़क पर ..
सूखे पत्ते पावों में सरसराते हैं ..
और फिर एक नन्हा , क्षीण सा बिन्दु ,
उसी सर्द सी ज़मीन पर ,
थके क़दमों में गर्म सोतों सा लगता हुआ ,
बदलता एक बारीक किरण रश्मि में ..
फिर एक प्रकाश पुंज ..


शायद वो छोर है ..

और उस पार हैं ,
कुछ सीधे सुलझे रेखाचित्र ..
और वही , मगर मुस्कुराता हुआ ,
एक धूप का टुकड़ा ..



Monday, March 17, 2008


एक विचार ..


' कुछ न कहें ..
बस यूं ही
देखते रहें
एक दूसरे को
सदियों तक ..'

सुंदर ..
बहुत सुंदर ..
पर यह तब था ,
अब ..

' न .. !!
न देखें
न ही कुछ कहें
बस दूर रहें
यही ..
यही है सही ..'

? ? ?

टूटते धागे
बिखरती लड़ियाँ ..

और फिर

कुछ नई पहल ,नए समीकरण ..
बार बार
बिगड़ते .. बनते .. बिगड़ते ..

जीवन की हर विधा में ,
हर पक्ष में ..
पल पल खेला जाता ,
शतरंज के खेल सा
एक युद्ध ..
जिसमें दरअसल ,
बिसात है जीवन
मोहरे हम ..
व प्रतिदिन , प्रति क्षण ,
हर चाल है ..

परिवर्तन .. !!



Wednesday, March 12, 2008


गंतव्य ..

एक अजब सी राह है ..
एक भरी दोपहर है ..
गर्म हवा के थपेड़े हैं
लगातार जलता सूरज है ..

बहुत से पत्थर , कम नही ठोकरें
थका .. हारा .. टूटा फूटा
क्षोभ में .. मैं पथिक ..
बस चलना है ..
और .. और .. और ..
इस राह पर ..
जो ले जायेगी
एक अप्रतिम , अद्वितीय , स्वार्गिक
गंतव्य तक ..

चिलचिलाती धूप में ..
दूर दिखता एक पेड़ ..
आम .. नहीं नीम .. नहीं बरगद .. पता नहीं ..
विशाल .. शीतल .. मौन ..
लिए बयार की मुस्कान .. वात्सल्य सी छाया ..
और बहुत सा शांत विस्तार ..
भीष्म पितामह सा अडिग ,
.. अनंत आकाश में “ॐ” सा ..
युगों से मानो वहीं खड़ा ..
सोखता क्लान्तियाँ थके मन की ..

बैठ जाता हूँ दो पल जड़ों पे
पोंछता पसीना माथे से
उद्विग्न था .. विक्षुब्ध था .. उत्तेजित भी ..
पर अब .. बस शांत हूँ ..

उठता हूँ पुन: चलने को जो
उसी राह पे , गंतव्य तक ,
तो पत्तों की सरसराहट में
पेड़ मुस्कुरा के कह उठता है ..
“ मैं छाया देता हूँ ..
नि:स्वार्थ .. निष्काम ..
जब थको , आ जाना ..”

फिर वही राह की धूप ..
धूल भी .. पत्थर भी .. ठोकरें भी ..
दूर एक मटियाला सा पोखर ..
एक मरीचिका .. ?
एक स्वप्न .. ?
एक वास्तविकता .. ?
या एक भ्रम .. ??

तीव्र हो उठे कदम ..
कुछ दूर पर कुछ गीली मिटटी
और फिर झिलमिलाता जलकुंड ..
सोने के थाल सा .. ?  न ..
यह तो सूर्य का प्रतिबिम्ब है ..
जल तो है पिघले पारे सा
पारदर्शी .. निर्मल ..
मुस्कुराता .. लहरों में नृत्य करता ..

झुक कर घुटनों पे
क्षेपता जल , भर अंजुरी पे अंजुरी ..
ठंडक पड़ने तक .. तृप्ति तक ..
और जो मुड़ता चलने को
उसी राह पर , गंतव्य तक ,
कुण्ड की लहरें छू जाती हैं तलवे
और बूँदें मुस्कुरा के कह उठती हैं
“ हम तृप्ति देती हैं .. जीवन देती हैं ..
नि:स्वार्थ .. निष्काम ..
जब प्यास लगे , आ जाना ..”

फिर वही राह की धूप ..
धूल भी .. पत्थर भी .. ठोकरें भी ..
दूर .. दूर तक जाती पगडण्डी ..
जाता हूँ क्षितिज तक .. गंतव्य तक ..
यहाँ कोई धूप नहीं ..
धूल नहीं .. पत्थर नहीं .. और ठोकरें भी नहीं ..
एक शीतल बयार .. पितामह पेड़ सी ..
कुछ निर्मल चश्मे .. पारे से .. पोखरे के ..
और सजे हुए बहुत से अमृत कलश
नाव में .. वैतरणी की ..
सब शांत .. सुंदर .. अनुपम ..
अब सदा के लिए .. सुखं सदैवं ..

नहीं ..
नहीं …

मोक्ष मेरा गंतव्य नहीं ..
पार जाना मेरी नियति नहीं ..

लौट पड़ता हूँ मध्य से
उठाये एक अमृत कलश हाथ में
वापस .. उसी धूल भरी पगडण्डी पे
छिड़कता कुछ अमृत बूँदें दोनों ओर
जिनसे फूटेंगे एक दिन
कुछ और शीतल घने पेड़ ..

छिड़कता कुछ बूँदें उस पोखरे में
जो देगा तृप्ति कितनों को , अनंत तक ..

छिड़कता कुछ और बूँदें उस पेड़ की जड़ों में
जो हरेगा क्लान्तियाँ कितनों की , अनंत तक ..

और शेष कलश लेकर चलता
उसी राह पर , आगे .. उसी विपरीत में ..
पहुँचने को द्वार पर नगर के
जो कभी मेरा था ..
और जिसने मुझे दुत्कार दिया था ..
क्योंकि मैं एक विद्रोह था
रुढियों से .. परम्पराओं से .. जड़ता से ..
क्योंकि मैं एक विषबीज था
उस सड़े गले विकृत समाज के लिए ..

यह बचा अमृत कलश 'उन सबके' लिए ..
जो देगा उन्हें मुक्ति
'मैं' और 'मेरे लिए' के स्वार्थ से
और ले चलेगा
'तुम' व 'तुम्हारे लिए' के आचार तक ..

क्योंकि जब ' हम' के समाज में
हो जाते हैं 'मैं' और 'मेरा' अधिक महत्वपूर्ण
तो उपजता है स्वार्थ .. पनपता असंतोष में ..
सुलगता है रोष .. और भड़कता विद्रोह ..
फिर हो जाती हैं प्रत्येक 'मैं' की राहें
धूप , धूल , पत्थर व ठोकर भरी ..

लम्बी .. अंतहीन सी ..

और कई बार तो
'पेड़' भी नहीं .. 'पोखर' भी नहीं ..
और शायद 'क्षितिज' भी नहीं ..

अमृत कलश हाथ है ..
सामने नगर द्वार है ..

हाँ .. हाँ ..
यही मेरी राह
यही है मेरी गति ..
और यही मेरा गंतव्य ..

Saturday, March 1, 2008


मैं .. स्वयं से ..

कौन हूँ मैं .. ?

अकेला .. अन्जाना .. बागी ..
जैसा मैं सोचता हूँ ..
या अरस्तू , इकलखोर , ज़िद्दी वगैरह ..
जैसा तुम कहते हो ..

बजरबट॒टू .. जैसा तुम कहते हो ..
जब मैं सिर्फ़ देखता हूँ , बोलता कुछ नहीं
कैद करता आंखों में खूबसूरती - पलों की ..

अरस्तू .. जैसा तुम कहते हो ..
जब मैं डूबा होता हूँ सोच के गहरे समंदर में
पहुँचने को किनारे किसी अनजानी रेत पे ..

जोकर .. जैसा तुम कहते हो ..
जब मैं हंसता हूँ दिल खोल के
जीता .. बनता मुस्कुराहटों का हिस्सा कुछ ‘अपनों’ की ..

झगड़ालू .. जैसा तुम कहते हो ..
जब मैं लड़ पड़ता हूँ हर उस ‘ग़लत’ के विरुद्ध
जो होता है विपरीत मेरी ‘सही’ की परिभाषाओं के ..

इकलखोर .. जैसा तुम कहते हो ..
जब मैं थक चुकता हूँ भीड़ से
और खो जाना चाहता हूँ किसी अंधेरे कोने में ..

जिद्दी .. जैसा तुम कहते हो ..
जब मैं अड़ जाता हूँ अपनी बात पे
दूसरों के हथियार डाल देने तक ..

अच्छा .. जो तुम कभी नहीं कहते ..
जब मैं होता हूँ नि:स्वार्थ ..
जब होता हूँ ईमानदार ख़ुद से , व दूसरों से भी ..
जब चलता हूँ न्याय के पथ पे ..
जब बाँट लेना चाहता हूँ सब के दु:ख ..
जब सोचता हूँ समस्त चर - अचर का भला ..
जब करता हूँ अखिल सृष्टि से प्रेम ..
जब रखता हूँ विश्वास 'वासुधैव कुटुम्बकम॒' सी उक्तिओं में ..
और यह सब मात्र सोच में नहीं
बल्कि सच में .. जीता इन्हें अपने जीवन में ..

जैसा तुम कहते हो ..
यह सब तो मात्र किताबी बातें हैं ..
इनसे क्या जीवन चलता है .. ?
इनसे क्या इंसान सफल होता है .. ?

जानता नहीं .. शायद हाँ .. शायद नहीं ..
पर बात यहाँ इच्छा की है , परिणाम की नहीं ..
बात प्रयास की है , जीत या हार की नहीं ..

प्रयास .. जिसमें जीना चाहता हूँ ..
सुकर्म से ..
प्रेम से ..
सद॒भाव से ..
ज्ञान से ..
मान से ..
गर्व से ..
इतिहास की दुखभरी कहानियों से हिम्मत हार कर नहीं
बल्कि उम्मीद पे .. एक सच्चे , स्वस्थ व सुंदर भविष्य की ..
और इच्छा पे .. ऐसे भविष्य की नींव का पत्थर बनने की ..

कौन हूँ मैं .. ?
एक सोच .. ?
एक स्वप्न .. ?
एक चिंतन .. ?
एक दु:साहस .. ?
एक अनुत्तरित प्रश्न .. ?

नहीं जानता ..
पर इतना अवश्य जान चुका हूँ ..
कि मुझे इतना जानकर भी
जान नहीं सके हो , अन्जान तुम
इसीलिए पूछ बैठते हो मुझसे अक्सर ..
कौन .. कौन हो तुम .. ??

Thursday, February 28, 2008


न जाने क्यों ..


रात का तीसरा पहर और ,
मेरा उठकर बेवजह डोलना ..
टकराना सूनी दीवारों से ,
खोजना कुछ ना खोई चीजों को
ख़ुद के गुम हो जाने तक ..

शायद बेला है एक नई कविता के जन्म की ..
पर अंदेशा है
क्या कर सकूंगा यह अभी .. ?

खींचना कोरे कागज़ पे कुछ बेमतलब लकीरें ,
या लड़ना शब्दों को जमाने की फालतू ज़ंग ,
फिर हार जाने पर ,
कुरेदना पुराने भर चुके ज़ख्मों को
साथ ही कोंचना हाल में लगे घावों को ..

झांकना अंजुरी भर ख़ुद के लहू में ,
और ढूँढना उसमे किसी 'जाने' प्रतिबिम्ब को ,
जो ‘जाने’ से न जाने कब ‘अनजाना’ हो गया था ..
और छोड़ गया था पीछे
अंजुरी भर लहू ..
नही .. पानी ..
नही ..
अंजुरी भर खारा पानी ..

पागल ..

कहीं खारे पानी से भी कविता रिसती है ?
वो तो बस अटकी है कलम की नोंक में ..
पर देखो ..
मरी .. सरकती ही नही ..
और मैं इसे ,
लिखकर भी नही लिख पाता ..

न जाने क्यों ..

Monday, February 25, 2008


एकला चला रे ..


लो दोस्तों .. आज से हम भी शुरू हो गए .. कुछ ख़ास नहीं , बस कुछ इधर की और कुछ उधर की .. कभी जी में आया तो शब्दों के दांत दिखा दिए .. कभी दिल रोया तो शब्दों के आँसू बहा लिये .. कल का क्या भरोसा .. जीना है बस इन्ही एक एक पल में ..

धन्यवाद मित्र मानव कॉल का जिन्होंने आधुनिक ब्लॉग - परम्परा से परिचित कराया .. दो चार कमेंट्स की गोलियाँ उनके ब्लॉग पे दाग चुका हूँ .. अब सोचता हूँ अपने दिमाग का कचरा अपने ब्लॉग पर ही दफ़न करूं .. ज़मीन ख़ुद चुकी है .. आईये मर्सिया पढ़ें ..