Tuesday, April 1, 2008





भाग ..


फिर वही दौड़ .. फिर वही भाग ..
वही रोज़ के धक्के ..
वही झटकों पे झटके ..

लगे रहो .. सहते जाओ ..
सोचो मत .. दौड़ते जाओ ..

रुक गए तो ठुक गए ..
थक गए तो चुक गए ..
सुस्ताये तो हार जाओगे ..
बैठ गए तो किस्सा ख़त्म .. !

माथे पसीना .. बिखरे बाल ,
उलझी साँसें .. चूरा हाल ..

मात्र दौड़ना , काफ़ी नही ..
दौड़ो .. पर तेज़ 'बाकियों' से ..
नहीं .. तो कम से कम
'बाकियों' के वेग से ..

डर .. 'औरों' से पिछड़ जाने का ,
'बहुतों' की भीड़ में कहीं खो जाने का ..
'और' तो फिर भी इंसान हैं .. नश्वर ..
पर इस 'समय' का क्या करें
जो कभी रुकता नहीं ..
जो कभी टिकता नहीं ..
दौड़ता है साथ संग ,
हर घड़ी में .. हर कदम पे ..
बीत जाता पलक झपकते ,
जो आप रुके , ये निकल गया
सरपट .. सबसे आगे ..

जीवन की इस दौड़ में
थकना .. एक गुनाह !
थमना .. उससे बड़ा गुनाह !!
रुक जाना .. सबसे बड़ा गुनाह !!!

सोचो .. क्या भागते रहना ही जीवन है ?
क्या मंथर गति पर्याप्त नहीं ?

अरे यह भागमभाग कैसी ?
किसके पीछे ..? किसलिए .. ?
लूटने दुनिया के आकर्षण .. ?
या फिर आवश्यकताओं का
वही पुराना 'बिचारा' व्यथाक्रम .. ?

इसका कोई अंत नही ..
जीवन भूलकर भागते जाना
बीतना है .. जीना नहीं ..

खींचनी होगी कहीं तो
संतोष की एक सीमा रेखा
जो बदल सके 'तेज़' को 'मंथर' में
बिना गिरे .. बिना ठोकर दिए ..
बिना किसी अवसाद के ..
जो दे सके संतुलन
'संभावना' व 'प्रत्यक्ष' में ..
'लोभ' व 'वास्तविकता' में ..
और फिर होंगे
शांति .. सुख .. उल्लास ..
आह .. अपूर्व आल्हाद .. !!

गुनाह .. !

भागने के समय सोचना .. गुनाह .. !!
देखना दिवास्वप्न .. और बड़ा गुनाह .. !!!

तो फिर ..

भाग जमूरे भाग ..

भाग ..