Thursday, February 28, 2008


न जाने क्यों ..


रात का तीसरा पहर और ,
मेरा उठकर बेवजह डोलना ..
टकराना सूनी दीवारों से ,
खोजना कुछ ना खोई चीजों को
ख़ुद के गुम हो जाने तक ..

शायद बेला है एक नई कविता के जन्म की ..
पर अंदेशा है
क्या कर सकूंगा यह अभी .. ?

खींचना कोरे कागज़ पे कुछ बेमतलब लकीरें ,
या लड़ना शब्दों को जमाने की फालतू ज़ंग ,
फिर हार जाने पर ,
कुरेदना पुराने भर चुके ज़ख्मों को
साथ ही कोंचना हाल में लगे घावों को ..

झांकना अंजुरी भर ख़ुद के लहू में ,
और ढूँढना उसमे किसी 'जाने' प्रतिबिम्ब को ,
जो ‘जाने’ से न जाने कब ‘अनजाना’ हो गया था ..
और छोड़ गया था पीछे
अंजुरी भर लहू ..
नही .. पानी ..
नही ..
अंजुरी भर खारा पानी ..

पागल ..

कहीं खारे पानी से भी कविता रिसती है ?
वो तो बस अटकी है कलम की नोंक में ..
पर देखो ..
मरी .. सरकती ही नही ..
और मैं इसे ,
लिखकर भी नही लिख पाता ..

न जाने क्यों ..

Monday, February 25, 2008


एकला चला रे ..


लो दोस्तों .. आज से हम भी शुरू हो गए .. कुछ ख़ास नहीं , बस कुछ इधर की और कुछ उधर की .. कभी जी में आया तो शब्दों के दांत दिखा दिए .. कभी दिल रोया तो शब्दों के आँसू बहा लिये .. कल का क्या भरोसा .. जीना है बस इन्ही एक एक पल में ..

धन्यवाद मित्र मानव कॉल का जिन्होंने आधुनिक ब्लॉग - परम्परा से परिचित कराया .. दो चार कमेंट्स की गोलियाँ उनके ब्लॉग पे दाग चुका हूँ .. अब सोचता हूँ अपने दिमाग का कचरा अपने ब्लॉग पर ही दफ़न करूं .. ज़मीन ख़ुद चुकी है .. आईये मर्सिया पढ़ें ..