गंतव्य ..
एक अजब सी राह है ..
एक भरी दोपहर है ..
गर्म हवा के थपेड़े हैं
लगातार जलता सूरज है ..
बहुत से पत्थर , कम नही ठोकरें
थका .. हारा .. टूटा फूटा
क्षोभ में .. मैं पथिक ..
बस चलना है ..
और .. और .. और ..
इस राह पर ..
जो ले जायेगी
एक अप्रतिम , अद्वितीय , स्वार्गिक
गंतव्य तक ..
चिलचिलाती धूप में ..
दूर दिखता एक पेड़ ..
आम .. नहीं नीम .. नहीं बरगद .. पता नहीं ..
विशाल .. शीतल .. मौन ..
लिए बयार की मुस्कान .. वात्सल्य सी छाया ..
और बहुत सा शांत विस्तार ..
भीष्म पितामह सा अडिग ,
.. अनंत आकाश में “ॐ” सा ..
युगों से मानो वहीं खड़ा ..
सोखता क्लान्तियाँ थके मन की ..
बैठ जाता हूँ दो पल जड़ों पे
पोंछता पसीना माथे से
उद्विग्न था .. विक्षुब्ध था .. उत्तेजित भी ..
पर अब .. बस शांत हूँ ..
उठता हूँ पुन: चलने को जो
उसी राह पे , गंतव्य तक ,
तो पत्तों की सरसराहट में
पेड़ मुस्कुरा के कह उठता है ..
“ मैं छाया देता हूँ ..
नि:स्वार्थ .. निष्काम ..
जब थको , आ जाना ..”
फिर वही राह की धूप ..
धूल भी .. पत्थर भी .. ठोकरें भी ..
दूर एक मटियाला सा पोखर ..
एक मरीचिका .. ?
एक स्वप्न .. ?
एक वास्तविकता .. ?
या एक भ्रम .. ??
तीव्र हो उठे कदम ..
कुछ दूर पर कुछ गीली मिटटी
और फिर झिलमिलाता जलकुंड ..
सोने के थाल सा .. ? न ..
यह तो सूर्य का प्रतिबिम्ब है ..
जल तो है पिघले पारे सा
पारदर्शी .. निर्मल ..
मुस्कुराता .. लहरों में नृत्य करता ..
झुक कर घुटनों पे
क्षेपता जल , भर अंजुरी पे अंजुरी ..
ठंडक पड़ने तक .. तृप्ति तक ..
और जो मुड़ता चलने को
उसी राह पर , गंतव्य तक ,
कुण्ड की लहरें छू जाती हैं तलवे
और बूँदें मुस्कुरा के कह उठती हैं
“ हम तृप्ति देती हैं .. जीवन देती हैं ..
नि:स्वार्थ .. निष्काम ..
जब प्यास लगे , आ जाना ..”
फिर वही राह की धूप ..
धूल भी .. पत्थर भी .. ठोकरें भी ..
दूर .. दूर तक जाती पगडण्डी ..
जाता हूँ क्षितिज तक .. गंतव्य तक ..
यहाँ कोई धूप नहीं ..
धूल नहीं .. पत्थर नहीं .. और ठोकरें भी नहीं ..
एक शीतल बयार .. पितामह पेड़ सी ..
कुछ निर्मल चश्मे .. पारे से .. पोखरे के ..
और सजे हुए बहुत से अमृत कलश
नाव में .. वैतरणी की ..
सब शांत .. सुंदर .. अनुपम ..
अब सदा के लिए .. सुखं सदैवं ..
नहीं ..
नहीं …
मोक्ष मेरा गंतव्य नहीं ..
पार जाना मेरी नियति नहीं ..
लौट पड़ता हूँ मध्य से
उठाये एक अमृत कलश हाथ में
वापस .. उसी धूल भरी पगडण्डी पे
छिड़कता कुछ अमृत बूँदें दोनों ओर
जिनसे फूटेंगे एक दिन
कुछ और शीतल घने पेड़ ..
छिड़कता कुछ बूँदें उस पोखरे में
जो देगा तृप्ति कितनों को , अनंत तक ..
छिड़कता कुछ और बूँदें उस पेड़ की जड़ों में
जो हरेगा क्लान्तियाँ कितनों की , अनंत तक ..
और शेष कलश लेकर चलता
उसी राह पर , आगे .. उसी विपरीत में ..
पहुँचने को द्वार पर नगर के
जो कभी मेरा था ..
और जिसने मुझे दुत्कार दिया था ..
क्योंकि मैं एक विद्रोह था
रुढियों से .. परम्पराओं से .. जड़ता से ..
क्योंकि मैं एक विषबीज था
उस सड़े गले विकृत समाज के लिए ..
यह बचा अमृत कलश 'उन सबके' लिए ..
जो देगा उन्हें मुक्ति
'मैं' और 'मेरे लिए' के स्वार्थ से
और ले चलेगा
'तुम' व 'तुम्हारे लिए' के आचार तक ..
क्योंकि जब ' हम' के समाज में
हो जाते हैं 'मैं' और 'मेरा' अधिक महत्वपूर्ण
तो उपजता है स्वार्थ .. पनपता असंतोष में ..
सुलगता है रोष .. और भड़कता विद्रोह ..
फिर हो जाती हैं प्रत्येक 'मैं' की राहें
धूप , धूल , पत्थर व ठोकर भरी ..
लम्बी .. अंतहीन सी ..
और कई बार तो
'पेड़' भी नहीं .. 'पोखर' भी नहीं ..
और शायद 'क्षितिज' भी नहीं ..
अमृत कलश हाथ है ..
सामने नगर द्वार है ..
हाँ .. हाँ ..
यही मेरी राह
यही है मेरी गति ..
और यही मेरा गंतव्य ..
4 comments:
'sabse khatarnaak hota hai , hamare sapno kaa mar jaana'
your post read analysis/comprehension/outpour of feelings is a piece of writing in itself. I can see you are a mate in the travails mentioned on my webpage, wherefrom spring your own emotions. Well, you're right, thats how things are so might as well play the game with their (or our) rules. How about, playing a balance between the two...
:)
मलय, मेरे लिये ये कविता थोड़ी लंबी है लेकिन जितना मेरी समझ में आया कह सकता हूँ शब्दों को अच्छे ढंग से अपने विचारों में पिरोया है आपने।
बहुत लंबी कविता है।
प्रिय मलय ,
शुक्रिया एक हिन्दुस्तानी का जिनके ज़रिए आपसे मिल रहा हूँ .
ये जो कविता मैने पढ़ी ,उसमें आत्म विस्तार और परिष्कार की
पुकार सुन रहा हूँ !
संशय और संदेह से संभावना की अंतहीन डगर पर जो कदम उठें
उनकी बेचैन रफ़्तार बनाए रखना एक चुनौती होती है, लेकिन इसी राह के किसी मोड़ पर
तमस से ज्योति की मंज़िल भी मिल सकती है .
कविता की इस पुकार को बनाए रखिए !
बधाई
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