Monday, March 17, 2008


एक विचार ..


' कुछ न कहें ..
बस यूं ही
देखते रहें
एक दूसरे को
सदियों तक ..'

सुंदर ..
बहुत सुंदर ..
पर यह तब था ,
अब ..

' न .. !!
न देखें
न ही कुछ कहें
बस दूर रहें
यही ..
यही है सही ..'

? ? ?

टूटते धागे
बिखरती लड़ियाँ ..

और फिर

कुछ नई पहल ,नए समीकरण ..
बार बार
बिगड़ते .. बनते .. बिगड़ते ..

जीवन की हर विधा में ,
हर पक्ष में ..
पल पल खेला जाता ,
शतरंज के खेल सा
एक युद्ध ..
जिसमें दरअसल ,
बिसात है जीवन
मोहरे हम ..
व प्रतिदिन , प्रति क्षण ,
हर चाल है ..

परिवर्तन .. !!



1 comment:

Dr. Chandra Kumar Jain said...

विचार से भी बाहर निकलना होता है
मुक्ति के लिए .
कुछ नही कहने से बड़ा कहना
संभव नहीं !

आपकी कविता अच्छी लगी .