एक विचार ..
' कुछ न कहें ..
बस यूं ही
देखते रहें
एक दूसरे को
सदियों तक ..'
सुंदर ..
बहुत सुंदर ..
पर यह तब था ,
अब ..
' न .. !!
न देखें
न ही कुछ कहें
बस दूर रहें
यही ..
यही है सही ..'
? ? ?
टूटते धागे
बिखरती लड़ियाँ ..
और फिर
कुछ नई पहल ,नए समीकरण ..
बार बार
बिगड़ते .. बनते .. बिगड़ते ..
जीवन की हर विधा में ,
हर पक्ष में ..
पल पल खेला जाता ,
शतरंज के खेल सा
एक युद्ध ..
जिसमें दरअसल ,
बिसात है जीवन
मोहरे हम ..
व प्रतिदिन , प्रति क्षण ,
हर चाल है ..
परिवर्तन .. !!
1 comment:
विचार से भी बाहर निकलना होता है
मुक्ति के लिए .
कुछ नही कहने से बड़ा कहना
संभव नहीं !
आपकी कविता अच्छी लगी .
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